" />
लोगों की राय

नई पुस्तकें >> जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं

जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं

नासिरा शर्मा

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :436
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 17176
आईएसबीएन :9788194873617

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

"क्रांति की लहूलुहान दास्तान : इतिहास के साक्षी बनाती नासिरा शर्मा की लेखनी"

जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं के रिपोर्ताज उस समय के साक्षी हैं जो सुप्रसिद्ध लेखिका नासिरा शर्मा की नज़रों के सामने से न केवल गुज़रा है बल्कि उसकी बारीकियों को भी उन्होंने पकड़ा है। इसमें उसी दौर के बड़े हस्ताक्षरों एवं सियासतदाँ के साथ तमाम साक्षात्कार एवं वार्ताओं के ज़रिये जीवन्त संवाद भी क़ायम किये हैं। यह वही समय था जिसमें ईरान-क्रान्ति की नयी आहट के साथ-साथ लेखिका ने क्रान्ति की एक चश्मदीद गवाह के तौर पर साहित्य में हस्ताक्षर भी किये। दुनिया की अन्य क्रान्तियों की तरह इसमें भी खूब खून बहा। ईरानी क्रान्ति के बाद के वैश्विक परिदृश्य को भी इस किताब में मज़बूती से रखा गया है। ज़ाहिर है, क्रान्ति से पहले और बाद के दौर की धड़कनों को पकड़ते हुए तमाम उम्मीदों एवं प्रभावों को लेखिका ने खूबसूरत शैली और आकर्षक भाषा में पाठकों के सामने रखा है।

मध्य-पूर्वी मुल्कों के साथ-साथ दूसरे और मुल्कों की सामाजिक एवं राजनैतिक उथल-पुथल का सूक्ष्म अवलोकन इस किताब का मूल स्वरूप है ।

यह किताब ईरान-इराक़ युद्ध के सभी सन्दर्भों को उठाते हुए तबाही की संस्कृति के प्रभावों को हमारे सामने रखती है। जिससे फ़क़त पड़ोसी मुल्क ही प्रभावित नहीं हुए, बल्कि पूरा विश्व इसकी चपेट में आ गया था । इसके दूरगामी प्रभाव हम सबने देखे भी हैं और किसी भी युद्ध की विभीषिका देशों को कैसे तबाह कर देती है-इसे लेखिका ने समस्त प्रमाणों एवं साक्ष्यों के साथ किताब में रखा है।

यह किताब ईरान एवं मध्य-पूर्वी मुल्क एवं अन्य देशों पर न केवल एक मुस्तनद दस्तावेज़ है, बल्कि उन मुल्कों के भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक पहलुओं को हमारे सामने खुलकर रखती है।

यह अपनी तरह का पहला और अनूठा काम है जो हमें उस कालखण्ड के विश्व इतिहास को समझने में मदद करता है।

दो शब्द

इतने साल गुज़र जाने के बाद भी मेरी पहचान ईरान पर लिखी मेरी रिपोर्ताज़ों से बनी हुई है। इसका अन्दाज़ा उन जगहों पर जाकर होता है जहाँ लोग मेरी साहित्यिक कृतियों से क़तई वाक़िफ़ नहीं हैं मगर मेरा नाम सुनते ही एकाएक पूछ बैठते हैं ‘वही नासिरा शर्मा, ईरान वाली ?’ फिर वे इण्डियन एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान टाइम्स, असरी अदब, क़ौमी आवाज़, सारिका, पुनश्च, नवभारत, दैनिक हिन्दुस्तान जहाँ भी मुझे पढ़ा हो उसका ज़िक्र करते हुए फ़ौरन कह उठते हैं कि आप से मिलने और आपको देखने की बड़ी इच्छा थी जो आज पूरी हुई। फिर किसी लेख या रिपोर्ताज़

के माध्यम से बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता जिसमें ईरान की वर्तमान स्थिति पर ढेरों प्रश्न होते। एक ग़लतफ़हमी जो अक्सर लोगों को मेरे बारे में है जिसमें डाक्टर रामविलास शर्मा सरीखे विद्वान भी शामिल हैं कि मैं ईरानी हूँ और बी.वी.सी. लन्दन वाले मार्कदुली की तरह भारत प्रेम एवं पेशे के चलते हिन्दुस्तान में रह गई हूँ। उनकी बातें सुनकर हँसती भी हूँ और ताज्जुब भी करती हूँ कि क्या वास्तव में राहुल सांकृत्यायन को लोग भूल गए हैं जिन्होंने ईरान पर विस्तार से काम किया या फिर रेणु को जो नेपाल क्रान्ति को देखकर बौद्धिक स्तर पर उद्देलित हो उठे थे ?

इन रिपोर्ताज़ों से दोबारा गुज़रना मेरे लिए बड़ा कष्टदायक अनुभव साबित हुआ। एक तरफ़ यक़ीन करना मुश्किल हो रहा था कि इस सबसे गुज़रने वाली मैं ही थी जो इब्नेबतूता बनी, सर पर कफ़न बाँधे इन इलाक़ों में घूम रही थी। या फिर दूसरी तरफ़ आश्चर्यमिश्रित अविश्वास में डूब-उतर रही थी कि क्या वास्तव में ईरानी क्रान्ति का वह समय इस हद तक अंकुश, आतंक, अत्याचार एवं अमानवीय घटनाओं से भरा हुआ था ? इस दिमागी कैफ़ियत का असर यह हुआ कि जो पुस्तक साल भर के अन्दर आनी थी वह पूरे तीन साल बाद आई क्योंकि प्रूफ़ पढ़ते हुए कोई भी लेख या रिपोर्ताज़ पूरा करने से पहले ही मैं उत्तेजना से भर जाती। बदन में गर्म-गर्म ख़ून दौड़ने लगता, आँखें तन-सी जातीं, नसें चिटखनें सी लगतीं और मैं कई-कई दिन मेज की तरफ जाने का हौसला नहीं बन पाती थी। शहादत, हादसा, युद्ध की जरिये मरने वाले मित्रों की शक्लें आँखों के सामने घूमने लगतीं जो मुझसे सवाल करती कि मैंने ईरान की सियासत पर लिखना क्यों बन्द कर दिया ? मैं कैसे कहती कि मेरी जान की खतरा कितना बढ़ गया था।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai